सांकेतिक तस्वीर
नई दिल्ली। 15 अगस्त 1947 को जब देश आजाद हुआ तो भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था की मजबूती के लिए वे सारे कारगर उपाय अमल में लाये गये ताकि भविष्य में भारत तख्तापलट का शिकार न हो सकें।
चूंकि वर्ष 1958 से ही पड़ोसी पाकिस्तान में तख्तापलट का दौर शुरू हो चुका था,फिर इस दौरान दुनिया के तमाम देश तख्तापलट व्यवस्था के शिकार होने लगे थे लेकिन पश्चिमी देश और भारत इससे बचें रहें।
बताते चले कि भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था इतनी मजबूत हैं कि भारत में सेना के लिए तख्तापलट करना बिल्कुल भी असंभव है। दरअसल भारतीय सेना की स्थापना अंग्रेजों ने की थी और उसका ढांचा पश्चिमी देशों की तर्ज पर बनाया था।
वर्ष 1857 की सशस्त्र क्रांति के बाद अंग्रेजी हुकूमत ने सेना का पुनर्गठन किया। इस दौरान उन्होंने पूरे भारत से सैनिकों की भर्ती की लेकिन उन्होंने जाति आधारित रेजिमेंट भी बनाई,जो कि पूरी तरह से अनुशासन की नींव पर आधारित था।
हालांकि आजादी के कुछ साल बाद देश में कुछ ऐसे हालात बन गए थे जहां पर लगभग यह मान लिया गया था कि देश की सेना कभी भी सत्ता को टेक ओवर कर सकती है लेकिन यह बात दबी कि दबी रह गयी, वह दौर इमरजेंसी का था जब देश में इंदिरा गांधी की सरकार ने संपूर्ण भारत में आपातकालीन कानून लागू कर दिया था,जिस वजह से भारतीय सेना का एक बड़ा वर्ग सरकार के इस फैसले से भढ़क उठा था,यहां तक की तत्कालीन एअर फोर्स चीफ ने अपने स्तर से बड़ी कोशिश भी की मगर थल सेना द्वारा अपेक्षित सहयोग की शून्य संभावना के चलते उन्होंने मौन धारण करने में हीं अपनी भलाई समझा।
इसी तरह की एक और रिपोर्ट सामने आई थी जिसमें यह कहा गया था कि वर्ष 1984 में जब स्वर्ण मंदिर पर भारतीय सेना द्वारा आॅपरेशन ब्लू स्टार की कार्रवाई की गई थी जिसके बाद विरोध में सेना के कुछ सिख यूनिटों ने विद्रोह कर दिया था। लेकिन फौज का बड़ा हिस्सा खामोश रहा और विद्रोह को दबा दिया गया।
दरअसल,जब पहली बार अंतरिम सरकार बनी तो तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भारतीय सेना को लोकतांत्रिक सरकार के नियंत्रण में रहने का सिद्धांत रखा। इसके लिए सबसे पहले उन्होंने कमांडर इन चीफ का पद खत्म कर दिया।
चूंकि नेहरू ने कहा था कि जब फौज का आधुनिकीकरण हो रहा है तो थल सेना, नौसेना और वायुसेना की अहमियत बराबर होगी और उसी समय तीनों के अलग अलग चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ बना दिए गए।
इन तीनों के ऊपर रक्षामंत्री को रखा गया जो चुनी हुई सरकार के कैबिनेट के तहत काम करता है।
फिर जनरल करियप्पा को थल सेना का पहला चीफ आफ आर्मी स्टाफ बनाया गया,चूंकि उस समय कमांडर इन चीफ का आवास तीन मूर्ति होता था,जिसे बाद में नेहरू ने उसे अपना सरकारी आवास बना दिया,जो कि यह साफ संकेत था कि देश में लोकतांत्रिक सरकार ही सुप्रीम सत्ता रहेगी।
एक बार तत्कालीन जनरल करियप्पा ने नेहरू सरकार की आर्थिक नीतियों की आलोचना की तो नेहरू उन्हें तत्काल तलब करते हुए साफ चेतावनी दिया कि सरकार के काम में सेना बिल्कुल भी हस्तक्षेप नहीं करेगी। दरअसल भारत में लोकतंत्र की जो नींव रखी गई, सेना भी उसका हिस्सा बन गई।
दरअसल सेना का ऐसा ढांचा हीं तैयार किया गया है कि देश में तख्तापलट की कभी नौबत ही नहीं आ सकती,चूंकि देश की थल सेना सात कमान में बंटी है,और ये संभव हीं नहीं है कि जनरल एक साथ सातों कमान को आदेश दे सकें वो भी तब जबकि इनके कमांडर सेनाध्यक्ष से मात्र एक या दो साल पीछे होते हैं जो कि किसी आदेश को इतनी आसानी से वे नहीं मान सकते जो अनुशासन से संबंधित हो।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि संवैधानिक रूप से भारतीय सेना में पहलें से हीं इतने ब्रेक लगा दिए गए हैं कि सवाल हीं नहीं पैदा होता है कि देश में कभी तख्ता पलट हो जाए।