स्पेशल रिपोर्ट

1948 की जंग में ब्रिगेडियर उस्मान ने जब दुश्मन को याद दिला दिया था छटी का दूध, लेकिन इस दौरान वो खुद शहीद हो गए, पूरी पलटन रोई थी अपने इस बहादुर अफसर के लिए – चंद्रकांत मिश्र/सतीश उपाध्याय


ब्रिगेडियर उस्मान (फाईल फोटो)

नई दिल्ली। कहते हैं कि युध्द में शहादत अक्सर सेना के सिपाही से लेकर लेफ्टिनेंट कर्नल तक के अधिकारियों को हीं नसीब होती है और कभी-कभार कर्नल भी शहीद होते रहे हैं,लेकिन देश के इतिहास में एक ऐसी भी लड़ाई हुई थी जिसमें भारतीय सेना के एक ब्रिग्रेडियर जिनको कि दुश्मन अपनी सेना में शामिल करने का आफर भी दिया तमाम लालच भी देने की कोशिश भी की गई यहां तक की धर्म के नाम पर भी बरगलाने की भी कोशिश हुई लेकिन वो बहादुर सैन्य अफसर भारत और भारतीय फौज को छोड़ा नहीं दरअसल यह सैन्य अधिकारी मुस्लिम धर्म से आते थे,इस इंडियन हिरो का नाम था ब्रिग्रेडियर उस्मान जो कि 1948 की जंग में शहीद हो गए थे,उनकी शहादत की सूचना पर उनके ब्रिग्रेड के सभी जवान उस समय अत्यंत भावुक हो गए थे,भारतीय सेना में आज भी इस हिरों को इज्जत व सम्मान के साथ याद किया जाता है।

उस्मान ने सेना में जाने का फ़ैसला किया,उन्होंने सैंडहर्स्ट में आवेदन किया और उनको चुन लिया गया। 1 फ़रवरी 1934 को वो सैंडहर्स्ट से पास होकर निकले,वो इस कोर्स में चुने गए 10 भारतीयों में से एक थे।
बताया जाता है कि सैम मानेकशॉ और मोहम्मद मूसा उनके बैचमेट थे जो बाद में भारतीय और पाकिस्तानी सेना के चीफ़ बने, और उस्मान साहब वर्ष 1947 तक भारतीय सेना में ब्रिगेडियर बन चुके थे।

वो एक वरिष्ठ मुस्लिम सैन्य अधिकारी थे, इसलिए हर कोई उम्मीद कर रहा था कि वो पाकिस्तान जाना पसंद करेंगे लेकिन उन्होंने भारत में ही रहने का फ़ैसला किया,जबकि बलूच रेजिमेंट के कई अधिकारयों ने जिसके कि वो सदस्य थे,उनके इस फ़ैसले पर सवाल उठाए और उस पर पुनर्विचार करने के लिए कहा,लेकिन उनका फैसला अडिग था।

अक्तूबर, 1947 में जब क़बाइलियों ने पाकिस्तानी सेना की मदद से कश्मीर पर हमला बोल दिया और 26 अक्तूबर तक वो श्रीनगर के बाहरी इलाक़ों तक बढ़ते चले आ रहे थे तब अगले दिन भारत ने दुश्मन को रोकने के लिए फ्रंट पर सेना को भेजने का फ़ैसला किया इसी दौरान 7 नवंबर को कबाइलियों ने राजौरी पर क़ब्ज़ा कर लिया और बहुत बड़ी संख्या में वहाँ रहने वाले लोगों का क़त्लेआम करने लगे, 50 पैरा ब्रिगेड के कमांडर ब्रिगेडियर उस्मान नौशेरा में डटे तो हुए थे लेकिन क़बाइलियों ने उसके आसपास के इलाक़ों पर कब्जा कर रखा था,लेकिन दुश्मन को आत्मसंतुष्टि नहीं मिली दरअसल उनके रास्ते का सबसे बड़ा काँटा उस्मान थे,

इसलिए ब्रिग्रेडियर उस्मान उनको वहाँ से हटाकर चिंगास तक का रास्ता साफ़ कर देना चाहते थे लेकिन उनके पास पर्याप्त संख्या में सैनिक नहीं थे, इसलिए उन्हें सफलता नहीं मिल पाई।
फिर 24 दिसंबर को क़बाइलियों ने अचानक हमला कर झंगड़ पर क़ब्ज़ा कर लिया,इसके बाद उनका अगला टारगेट नौशेरा था,उन्होंने इस शहर को चारों तरफ़ से घेरना शुरू कर दिया,

इसी दौरान 4 जनवरी, 1948 को उस्मान ने अपनी बटालियन को आदेश दिया कि वो झंगड़ रोड पर भजनोआ से क़बाइलियों को खदेड़ना शुरू करें,लेकिन भारतीय सेना ने ये हमला बग़ैर तोपखाने के किया गया, जिस वजह से सेना का यह आॅपरेशन असफल हो गया और क़बाइली अपनी जगह पर जमे रहे।

दुश्मन अपनी इस सफलता से उत्साहित होकर उसी शाम नौशेरा पर हमला कर दिया लेकिन भारतीय सैनिकों ने दुश्मन के उस हमले को नाकाम कर दिया,दो दिन बाद दुश्मन ने फिर उत्तर पश्चिम से दूसरा हमला बोला और ये भी नाकामयाब हुआ,फिर उसी शाम क़बाइलियों ने 5000 लोगों और तोपखाने के साथ एक और हमला बोला, ब्रिगेडियर उस्मान के सैनिकों ने अपना पूरा ज़ोर लगाकर तीसरी बार भी क़बाइलियों को नौशेरा पर कब्ज़ा नहीं करने दिया।

कहा जाता है कि क़बाइलियों के हमले लगातार तीन बार नाकाम करने के बावजूद गैरिसन के सैनिकों का मनोबल बहुत ऊँचा नहीं था,चूंकि विभाजन के बाद फैले सांप्रदायिक वैमनस्य की वजह से कुछ सैनिक अपने मुस्लिम कमांडर की वफ़ादारी के बारे में निश्चिंत नहीं थे,उस्मान को न सिर्फ़ अपने दुश्मनों के मंसूबों को ध्वस्त करना था बल्कि अपने सैनिकों का भी विश्वास जीतना था,उनके शानदार व पेशेवर रवैये ने कुछ ही दिनों में हालात बदल दिए,उस्मान ने ब्रिगेड में एक दूसरे से बात करते हुए जय हिंद कहने का प्रचलन शुरू करवाया।

डिफेंसिव लड़ाई में जीत के बाद उस्मान ने दुश्मन के खिलाफ अग्रेसिव लड़ाई का प्लान बनाया,योजना के अनुसार कोट नौशेरा से 9 किलोमीटर उत्तर पूर्व में था,और ये क़बाइलियों के लिए एक तरह से ट्राँसिट कैंप का काम करता था क्योंकि वो राजौरी से सियोट के रास्ते में था, उस्मान ने कोट पर क़ब्ज़ा करने के लिए ऑपरेशन किपर के तहत उन्होंने कोट पर अपने ब्रिगेड के दो बटालियनों के दुश्मन पर दोतरफ़ा हमला करने का आदेश दिया, दरअसल इस आॅपरेशन का नाम किपर इसलिए भी रखा गया था चूंकि उस समय लेफ्टिनेंट जनरल करियपपा उस समय उत्तर-पश्चिम कमान के चीफ थे और ये ब्रिगेड भी उन्हीं के अधीन थी और सेना में वो किपर के नाम से मशहूर थे।

3 पैरा ने दाहिनी तरफ़ से पथरडी और उपर्ला डंडेसर पर चढ़ाई की और 2/2 पंजाब ने बाईं तरफ़ से कोट पर हमला किया,इस आॅपरेशन में सहयोग करने के लिए भारतीय वायुसेना ने भी एयर सपोर्ट दिया, दुश्मन को ये आभास दिया गया कि हमला वास्तव में झंगड़ पर हो रहा है, इसके लिए घोड़े और खच्चरों का इंतज़ाम किया गया और दुश्मन भ्रमित हो गया,फिर कोट पर 1 फ़रवरी, 1948 की सुबह 6 बजे जोरदार हमला किया गया और अगले एक घंटे की लड़ाई में हीं कोट पर भारतीय सैनिकों का क़ब्ज़ा हो गया।

लेकिन इस लड़ाई में भारतीय सेना के साथ बहुत बड़ा धोखा हो गया चूंकि बाद में पता चला कि बटालियन ने गाँव के घरों की अच्छी तरह से तलाशी नहीं ली थी और वो कुछ क़बाइलियों को भी पहचान नहीं पाए थे जो कि अभी सो रहे थे,जिस वजह से थोड़ी देर में उन्होंने जवाबी हमला बोल दिया और आधे घंटे के अंदर क़बाइलियों ने कोट पर दोबारा क़ब्ज़ा कर लिया।

लेकिन उस्मान ने इसका पहले से ही अंदाज़ा लगाते हुए दो कंपनियाँ रिज़र्व में रखें थे,और उन्होंने उनको तुरंत आगे बढ़ाया और भारी गोलाबारी और हवाई बमबारी के बीच 10 बजे तक कोट पर दोबारा क़ब्ज़ा कर लिया गया। इस लड़ाई में क़बालियों के 156 लोग मरे जबकि वही भारतीय सेना 2/2 पंजाब के सिर्फ़ 7 लोग मारे गए।

फिर 6 फ़रवरी, 1948 को कश्मीर युद्ध की सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ी गई, सुबह 6 बजे उस्मान कलाल पर हमला करने वाले थे लेकिन तभी उन्हें पता चला कि कबाइली उसी दिन नौशेरा पर हमला करने वाले हैं,और इस हमले में दुश्मन की तरफ़ से 11000 लोगों की नफरीं है।

20 मिनट तक चले इस गोलाबारी के बाद क़रीब 3000 पठानों ने तेनधर पर हमला किया और लगभग इतने ही लोगों ने कोट पर हमला बोला, इसके अलावा लगभग 5000 लोगों ने आसपास के इलाके कंगोटा और रेदियाँ पर धावा बोला।

राजपूत की पलटन नंबर 2 ने दुश्मन के इस भीषण हमले के पूरे आवेग को झेला और इस 27 लोगों की पिकेट में 24 लोग या तो मारे गए या बुरी तरह से घायल हो गए, बचे हुए तीन सैनिकों ने तब तक लड़ना जारी रखा जब तक उनमें से दो सैनिक धराशाई नहीं हो गए,सिर्फ़ एक सैनिक बचा तभी बैकअप आ गई और लड़ाई के रूख को बदल दिया।

अगर बैकअप को वहाँ पहुंचने में कुछ मिनटों की भी देरी हो जाती तो तेनधार भारतीय सैनिकों के हाथ से निकल जाता फिलहाल अभी तेनधार और कोट पर हमला लगातार जारी हीं था कि 5000 पठानों के झुंड ने पश्चिम और दक्षिण पश्चिम की ओर से हमला कर दिया लेकिन ये हमला नाकामयाब कर दिया गया, और इस असफलता के बाद दुश्मन पीछे हटता चला गया।

कहते हैं कि इस लड़ाई में सैनिकों के अलावा एक राजपूत के एक सफ़ाई कर्मचारी ने भी असाधारण वीरता दिखाई थी, क़बाइलियों के ख़त्म न होने वाले जत्थों के हमले के दौरान जब भारतीय सैनिक धराशाई होने लगे तो उसने एक घायल सैनिक के हाथ से राइफ़ल लेकर क़बाइलियों पर गोली चलानी शुरू कर दी,और उसने एक हमलावर के हाथ से तलवार खींचकर तीन क़बाइलियों को भी मारकर धराशायी कर दिया था।
ब्रिगेडियर उस्मान ने इस लड़ाई मे 6 से 12 साल के अनाथ बच्चों को लेकर एक बालक सेना नाम से युनिट बनाये हुए थे,जो कि नौशेरा की लड़ाई के दौरान इनका इस्तेमाल चलती हुई गोलियों के बीच संदेश पहुंचाने के लिए किया गया था, लड़ाई ख़त्म होने के बाद इनमें से तीन बालकों को बहादुरी दिखाने के लिए सम्मानित किया गया और प्रधानमंत्री नेहरू ने उन्हें सोने की घड़ियाँ ईनाम में दिये थे।

नौशेरा की लड़ाई के बाद ब्रिगेडियर उस्मान का हर जगह नाम हो गया और रातों रात वो देश के हीरो बन गए, जेएके डिवीज़न के जनरल ऑफ़िसर कमाँडिंग मेजर जनरल कलवंत सिंह ने एक प्रेस कान्फ़्रेंस कर नौशेरा की सफलता का पूरा सेहरा 50 पैरा ब्रिगेड के कमांडर ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान के सिर पर बाँधा।

जब उस्मान को इसका पता चला तो उन्होंने कलवंत सिंह को अपना विरोध प्रकट करते हुए पत्र लिखा कि “इस जीत का श्रेय सैनिकों को मिलना चाहिए जिन्होंने इतनी बहादुरी से लड़कर देश के लिए अपनी जान दी, न कि ब्रिगेड के कमाँडर के रूप में उनको.”

फिर ब्रिग्रेडियर उस्मान को 10 मार्च, 1948 को मेजर जनरल कलवंत सिह ने झंगड़ पर पुन: क़ब्ज़ा करने का आदेश दिया,और इस अभियान को ‘ऑपरेशन विजय’ का नाम दिया गया,और योजना के अनुसार इस आॅपरेशन को 12 मार्च को शुरू करना था लेकिन भारी बारिश के कारण इसको दो दिनों के लिए टाल दिया गया,और 18 मार्च को झंगड़ में भारतीय सेना ने आॅपरेशन विजय को सफल कर दिया।
उस्मान के बारे में यह भी बताया जाता है कि जब 1947 में झंगड़ भारत के हाथ से निकल गया था तो उन्होंने शपथ लिया था कि जबतक जीतेंगें नहीं तबतक पलंग पर नहीं सोयेंगें और जबतक आॅपरेशन विजय सफल नहीं हुआ तबतक वो उस दौरान पलंग पर कभी नहीं सोये।

5 बज कर 45 पर क़बाइलियों ने ब्रिगेड मुख्यालय पर गोले बरसाने शुरू कर दिए,इस दौरान चार गोले तंबू से क़रीब 500 मीटर उत्तर में गिरे,हर कोई आड़ लेने के लिए भागना शुरू कर दिया और उस्मान ने सिग्नलर्स के बंकर के ऊपर एक चट्टान के पीछे आड़ ले लिये और फिर दुश्मन के तोपों को चुप कराने के लिए इधर से भी गोलाबारी शुरू कर दी गई।

इसी दौरान अचानक उस्मान ने मेजर भगवान सिंह को आदेश दिया कि वो अपनी तोपों को पश्चिम की तरफ़ घुमाएं और प्वाएंट 3150 पर निशाना लेकर फायर करें, भगवान ये आदेश सुन कर थोड़ा चकित हुए, क्योंकि दुश्मन की तरफ़ से तो दक्षिण की तरफ़ से फ़ायर आ रहा था, लेकिन उन्होंने उस्मान के आदेश का पालन करते हुए अपनी तोपों को आदेशानुसार घुमाकर फायर झोंक दिये,वहाँ पर कबाइलियों की ‘आर्टलरी ऑब्ज़रवेशन पोस्ट’ थी फिर दुश्मन की तरफ से फ़ायर आना बंद हो गया।

फिर लेफ़्टिनेंट राम सिंह अपने साथियों के साथ नष्ट हुए एरियल्स की मरम्मत करने लगे,और उस्मान भी ब्रिगेड कमांड की पोस्ट की तरफ़ बढ़ने लगे,तभी 25 पाउंड का एक गोला पास की चट्टान पर गिरा और उसके उड़ते हुए टुकड़े ब्रिगेडियर उस्मान के शरीर में धँस गए और उनकी उसी जगह पर मौत हो गई,उस रात पूरी रात गोलाबारी हुई और झंगड़ पर करीब 800 गोले दागे गए।

ब्रिगेडियर उस्मान के शहीद होने की सूचना पर पूरी गैरिसन में शोक छा गया,जब भारतीय सैनिकों ने सड़क पर खड़े हो कर अपने ब्रिगेडियर को अंतिम विदाई दी तो सब की आँखों में आँसू थे।

देश के लिए अपनी ज़िंदगी देने वाले इस शख़्स के सम्मान में दिल्ली हवाई अड्डे पर बहुत बड़ी भीड़ जमा हो गई थी,फिर राजकीय सम्मान के साथ उनकी अंतयेष्ठि करवाई गई।

उनके जनाज़े को जामिया मिलिया विश्वविद्यालय में दफ़नाया गया जिसमें भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू अपने मंत्रिमंडल के सदस्यों के साथ मौजूद थे,इसके तुरंत बाद ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान को मरणोपरांत महावीर चक्र देने की घोषणा की गई।

उस्मान के बारे में यह भी बताया जाता है कि झंगड़ के भारतीय सेना के हाथ से निकल जाने के बाद बहुत से आम नागरिकों ने नौशेरा में शरण ली थी। उस समय वहाँ खाने की बेहद कमी थी, उस्मान ने अपने सैनिकों को मंगलवार को व्रत रखने का आदेश दिया ताकि उस दिन का बचा हुआ राशन आम लोगों को दिया जा सके।

ब्रिगेडियर उस्मान ने ताउम्र शराब का सेवन नहीं किया, डोगरों के साथ काम करते हुए वो शाकाहारी भी हो गए थे, वो पूरी उम्र अविवाहित रहे और उनके वेतन का बहुत बड़ा हिस्सा ग़रीब बच्चों की मदद के लिए जाता रहा।

भारत के सैनिक इतिहास में अब तक ब्रिगेडियर उस्मान वीर गति को प्राप्त होने वाले सबसे वरिष्ठ सैन्य अधिकारी हैं। झंगड़ मे उसी चट्टान पर उनका स्मारक बना हुआ है जहाँ दुश्मन के गिरे तोप के एक गोले ने उनकी जान ले ली थी।

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