अफगानिस्तान में दिसंबर 1979 से फरवरी 1989 के दौर को सोवियत युद्ध के तौर पर जाना जाता है। ये वो दौर था जब सोवियत संघ (अब रूस) की सेना ने अफगानिस्तान सरकार की तरफ से अफगान मुजाहिदीनों के खिलाफ जंग लड़ी थी। 1979 में तत्कालीन सोवियत संघ के राष्ट्रपति लियोनिड ब्रेजनेव ने अफगानिस्तान में अपनी सेना भेजने का फैसला लिया। इसके पीछे मकसद अफगान में सैय्यद मोहम्मद नजीबुल्लाह के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट सरकार को मुजाहिदीनों के खिलाफ लड़ने में मदद पहुंचाना था। जंग शुरू होने के कुछ दिन बाद ही दिसंबर महीने में ही सोवियत आर्मी ने अफगानिस्तान की केपिटल सिटी काबुल पर कब्जा कर लिया था। सोवियत के फैसले का विरोध…
सोवियत संघ के इस फैसले का तुरंत विरोध दिखने लगा। अमेरिका ने पाकिस्तान की मदद से अफगान मुजाहिदीन को लड़ाई करने के लिए तैयार कर लिया और पूरी दुनिया से इस्लामी लड़ाकों को जमा कर लिया। इन्हें पाकिस्तान और चीन की मिलिट्री से ट्रेनिंग दिलाई गई। साथ ही, इनके लिए हथियारों पर अमेरिका, ब्रिटेन, सऊदी अरब समेत तमाम देशों ने अरबों डॉलर खर्च भी कर दिए।
लाखों लोगों ने गंवाई जान
हालांकि, इस वक्त तक ये जंग मुजाहिदीनों के खिलाफ न होकर सोवियत के नेतृत्व वाली अफगान सेना और कई देशों के विद्रोही समूहों के खिलाफ हो चुकी थी। इस युद्ध में करीब 10 लाख लोग मारे गए और उससे कहीं ज्यादा लोग देश छोड़कर दूसरे देशों में चले गए। इस युद्ध में करीब 15 हजार सोवियत सैनिक भी मारे गए।
सेना की वापसी का फैसला
1987 में सोवियत संघ ने कुछ आंतरिक कारणों से अपने सैनिकों की वापसी का फैसला लिया। 15 मई 1988 में सैनिकों की वापसी शुरू हुई और 15 फरवरी 1989 को आखिरी सैन्य टुकड़ी की भी अफगानिस्तान से वापसी हो गई। 15 मई 1988 में सैनिकों की वापसी शुरू हुई और 15 फरवरी 1989 को आखिरी सैन्य टुकड़ी की भी अफगानिस्तान से वापसी हो गई। सोवियत सेना अफगानिस्तान में पूरे नौ साल बीताकर लौट रही थी।
सेना को किया शुक्रिया
अफगानिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति मोहम्मद नजीबुल्लाह ने इस पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि वो अफगानिस्तान की मदद करने के लिए सोवियत संघ की जनता और सोवियत सरकार का शुक्रिया अदा करता हैं। सोवियत सेना के जाने के बाद भी अफगानिस्तान में गृह युद्ध जारी रहा, लेकिन तीन साल बाद 1992 में अफगान मुजाहिदीन ने नजीबुल्लाह को अपदस्थ कर दिया था और बुरहानुद्दीन रब्बानी राष्ट्रपति बने।