म्यांमार में लोकतंत्र समर्थक आंदोलनकारियों पर सैनिक शासन की जारी बर्बरता के बीच बड़ी संख्या में वहां से लोगों का पलायन शुरू हो गया है। वहां से भाग रहे दर्जनों लोग भारत की सीमा में प्रवेश कर चुके हैं। उससे भी ज्यादा संख्या में लोग इसी मकसद से सीमा के आसपास मौजूद हैं। जानकारों ने कहा है कि अब हालात ऐसे हो गए हैं कि पिछले वर्षों में रोहिंग्या और दूसरे अल्पसंख्यकों के साथ जो हुआ, वह अब देश की बहुसंख्यक आबादी के साथ दोहराया जाता लग रहा है।
बता दें कि म्यामांर के अल्पसंख्यक समूह दशकों से सेना का उत्पीड़न झेलते रहे हैं। पहाड़ी और जंगली क्षेत्रों में रहने वाले अल्पसंख्यक समूहों पर अत्याचार की कहानियां बहुचर्चित रही हैं। उन इलाकों में नरसंहार, बलात्कार, यातना, जबरिया मजबूरी, विस्थापन आदि लंबे समय से रोजमर्रा की बात रही है। 2016-17 में रखाइन प्रांत में सेना के अत्याचार के कारण सात लाख 40 हजार से ज्यादा रोहिंग्या मुसलमान पलायन कर बांग्लादेश चले गए थे। 2019 में संयुक्त राष्ट्र ने रखाइन, चिन, शान, कचिन और करेन राज्यों में अल्पसंख्यकों के साथ सेना के सलूक को ‘मानव अधिकारों का घोर हनन’ बताया था।
विश्लेषकों के मुताबिक, ये विडंबना है कि उस वक्त बहुसंख्यक समुदाय और आंग सान सू ची की पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) सेना के साथ खड़े थे। अब वो खुद सेना के निशाने पर आ गए हैँ।
अब मौजूदा आंदोलन के बीच अल्पसंख्यक समुदायों ने अपनी पीड़ा की तरफ ध्यान खींचने की कोशिश की है। मौजूदा आंदोलन पिछले महीने सेना के सत्ता हथिया लेने के बाद शुरू हुआ। पिछले चुनाव में एनएलडी को जीत मिली थी। लेकिन नई संसद की बैठक शुरू होने से कुछ घंटे पहले ही सेना तख्ता पलट दिया। अब आंदोलनकारी लोकतंत्र बहाली और आंग सान सू ची, हटाए गए राष्ट्रपति विन मिंत और अन्य सरकारी अफसरों की रिहाई की मांग कर रहे हैं। लेकिन अल्पसंख्यक समूहों के संगठनों ने कहा है कि ये मांगें मोटे तौर पर देश के बहुसंख्यक बौद्ध बामर समुदाय की हैं।
बहुसंख्यक देश के मैदानी इलाकों और यंगून और मंडाले जैसे बड़े शहरों में रहते हैं। अल्पसंख्यक समूहों का कहना है कि उनकी लड़ाई सेना बनाम एनएलडी के बजाय कहीं ज्यादा बड़े सवालों पर है। अल्पसंख्यकों के म्यांमार में लगभग 135 संगठन हैं।