इन्वेस्टिगेटिव रिपोर्ट

अफगानिस्तान,वियतनाम में क्यों फेल हुआ अमेरिका का मिलीट्री आपरेशन ? चंद्रकांत मिश्र (एडिटर इन चीफ)

वॉशिंगटन
अफगानिस्‍तान के काबुल एयरपोर्ट को छोड़ने के साथ ही सुपर पावर अमेरिका की एक और शर्मनाक हार इतिहास के पन्‍नों में दर्ज हो गई है। वियतनाम, पश्चिम एशिया और अब अफगानिस्‍तान में मुट्ठीभर गुरिल्‍ला छापामारों ने परमाणु बम और महाविनाशक फाइटर जेट से लैस अमेरिकी सेना को घुटने पर झुकने के लिए मजबूर कर दिया। अफगानिस्‍तान में अमेरिका के आधी रात भागने को हार इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि अमेरिकी सेना के लौटने के बाद अफगानिस्तान में स्थिति ठीक 2001 से पहले वाली ही है। दो ट्रिल्‍यन डॉलर खर्च और एक से बढ़कर एक हथियारों के इस्‍तेमाल के बाद भी अमेरिका अफगानिस्‍तान की जमीनी स्थिति को कुछ भी बदलने में असफल रहा। अमेरिका तालिबान और अपने सबसे बड़े दुश्‍मन अलकायदा के अस्तित्‍व को मिटा नहीं पाया। आइए समझते हैं कि आखिरकार क्‍यों गुरिल्‍ला युद्ध में ‘सुपरपावर’ अमेरिका अपनी हर लड़ाई क्यों हार जाता है….

वियतनाम का युद्ध करीब 20 साल तक चला। 1956 से 1975 तक चले इस युद्ध में अमेरिकी की सेना 1965 में उतरी और देश को कम्युनिस्ट राष्ट्र बनने से बचाने के लिए एक भीषण लड़ाई शुरू हुई। देखते ही देखते युद्ध अपने चरम पर पहुंच गया। यह साल था 1969 जब अमेरिका ने 5 लाख सैनिकों का भारी भरकम सैन्यबल जंग के मैदान पर उतार दिया लेकिन अगले चार सालों में चीजें तेजी से बदलने लगीं। वियतनाम की सेना ने गुरिल्‍ला युद्ध की रणनीति अपनाई और अमेरिका को मुंहतोड़ जवाब दिया। अमेरिकी सैनिकों की लाशें जब घर लौटने लगीं तो अमेरिका की सरकार अपने ही लोगों और विपक्ष की आलोचना का शिकार होने लगी। दबाव बढ़ता गया और 1973 में बिनी किसी अंजाम तक पहुंचे अमेरिका ने अपनी सेना वापस बुला ली।

लड़ाकुओं की सेना अमेरिकी फौज के आगे स्कूली परेड जितनी भी नहीं
वर्ष 2021 में भी इतिहास ने अपने आप को दोहराया। इस बार भी वही अमेरिका था और वही अमेरिकी सेना लेकिन इस बार नक्शे पर था अफगानिस्तान और फैसला लेना था जो बाइडन को। ‘सुपरपावर’ कहा जाने वाला अमेरिका गुरिल्‍ला युद्ध के मैदान में बैकफुट पर नजर आता है। इसका एक उदाहरण इराक भी है। पश्चिम एशिया के साथ-साथ समूचे विश्व के लिए खतरा बन चुके खूंखार आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट का इराक के कई हिस्सों पर कब्जा है। हालांकि इन लड़ाकुओं की सेना अमेरिकी फौज के आगे किसी स्कूली परेड जितनी भी नहीं होगी। इसके बावजूद अमेरिकी सेना वहां संघर्ष कर रही है। इस्लामिक स्टेट के पास न अमेरिकी जैसी तकनीक है, न सैन्यबल और न ही पैसा इसके बावजूद पिछले जून में ही आतंकियों के अमेरिका के दो ड्रोन मार गिराए थे। इराक में अमेरिकी सेना की स्थिति बहुत मजबूत नहीं है। हालांकि गनीमत है कि अमेरिकी सैनिक अभी भी वहां मौजूद हैं।

अमेरिकी हार को छिपाने के लिए कुछ लोग ओसामा बिन लादेन की हत्या का तर्क दे रहे हैं। इतिहास में सद्दाम हुसैन और कर्नल गद्दाफी के अंत को भी अमेरिका की जीत के रूप में दिखाया जाता है लेकिन हर बार यह तथ्य सामने आकर खड़ा हो जाता है कि अफगानिस्तान, इराक जैसे कई देशों में आतंकवाद और अमेरिकी सेना एक साथ आगे बढ़े थे। रिपोर्ट्स बताती हैं कि1945 के बाद अमेरिका कोरिया, वियतनाम, खाड़ी, इराक और अफगानिस्तान में बड़े युद्ध लड़ चुका है। इनमें से चार लड़ाइयों में अमेरिका की हार हुई है।

स्थानीय लड़ाके सैन्य ताकत में भले कमजोर लेकिन अधिक प्रतिबद्ध
अफगानिस्तान में अमेरिकी प्रशासन के लिए कई साल काम कर चुके ‘द अमेरिकन वार इन अफ़ग़ानिस्तान-ए हिस्ट्री’ के लेखक कार्टर मलकासियन आधुनिक जंगों में अमेरिका की हार पर प्रकाश डालते हैं। वह कहते हैं कि 1945 के बाद युद्धों में अमेरिका का मुकाबला ऐसे स्थानीय लड़ाकों से हुआ जो सैन्य ताकत में भले कमजोर थे लेकिन लड़ाई के प्रति अधिक प्रतिबद्ध थे। काबुल से जिस तरह अमेरिकी सेना ‘भागी’ है, उसने बाइडन और भविष्य के राष्ट्रपतियों के लिए एक शर्मनाक दस्तावेज तैयार कर दिया है जो हमेशा दुनिया के नक्शे पर अमेरिका के आगे चस्पा रहेगा।

अमेरिका अपनी लड़ाइयां आखिर क्यों हार जाता है? बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक विशेषज्ञ बताते हैं कि अमेरिकी सैनिक ऐसी जगहों पर लड़ रहे थे जो उनके लिए बिल्कुल नई थीं। एक तरफ सेना स्थानीय कल्चर और भाषा से पूरी तरह अनजान थी, वहीं ‘दुश्मन’ को न सिर्फ क्षेत्र की जानकारी थी बल्कि उसके साथ लोकल सपोर्ट भी था। तालिबान समेत कई बार अमेरिका का दुश्मन ऐसी गुरिल्ला सेना थी जो न मरने से डरती थी और न मारने से कतराती थी। धार्मिक कट्टरता ने अमेरिका के दुश्मन को और खतरनाक बना दिया। लिहाजा अमेरिकी सैनिकों मैदान छोड़कर भागना पड़ा।

तालिबानी जंग के मैदान में मरने और मारने के मकसद से आते थे’
रिपोर्ट में विशेषज्ञ ने कहा कि तालिबानी जंग के मैदान में मरने और मारने के मकसद से आते थे। वहीं अमेरिकी या किसी भी सरकारी सैनिक की प्राथमिकता अपनी और अपने साथियों की जान बचाना थी। प्रतिबद्धता और कट्टरपंथ भी ‘दुश्मन’ का हथियार बना क्योंकि तालिबान अपने देश के लिए लड़ रहा था लेकिन अमेरिकी सैनिक के हाथ में हथियार किसकी रक्षा के लिए थे? यह सवाल उन कारणों में से है जो अमेरिका की हार के लिए जिम्मेदार हैं। इन हारों ने न सिर्फ इतिहास बदले बल्कि ताइवान और भारत जैसे देशों को अमेरिकी सहयोग पर संदेह करने के कारण भी दिए हैं।

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