
चीनी सैनिक (फाईल फोटो)
नई दिल्ली। चीनी सेना का इतिहास कायरता से भरा पड़ा है,ये कितना डरपोक है ? और ये इतिहास में कितने युध्द कितने देशों से अब तक लड़ चुके है ? और जब मार पड़ी है तब ये कैसे दुम दबाकर भागे है ? और ये कितने बड़े धूर्त व धोखेबाज़ है ? आज हम इनकी एक-एक काली करतूतों पर प्रकाश डाल रहे हैं।
जापान इनके आगे बहुत छोटा सा अदना सा देश है उसने इनपर पहला हमला किया था वर्ष 1912 में और इनके तत्कालीन राजवंश को नष्ट कर दिया,फिर जापान इन पर वर्ष 1936 में दूसरा हमला बोला यह हमला वर्ष 1945 तक चला इस युद्ध में कई लाख चीनी मारे गए,द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जापान पर परमाणु हमला होने की वजह से जापान सरेंडर कर गया,तब चीनीयों की जान बची।
1 अक्टूबर 1949 में माओतसे तुंग के लीडरशिप में चीनी गणराज्य की स्थापना की गई,उस समय इनकी हर ढंग से भारत मदद कर रहा था,इनकी बदनियति का पहला शिकार तिब्बत हुआ, तिब्बत को वर्ष 1951 में चीनी गणराज्य में विलय कर लिया गया,जब इस विलय का विरोध शुरू हुआ तो चीनीयों ने विरोधी गुट के लीडर दलाईलामा को गिरफ्तार कर दंडित करना चाहते थे लेकिन लामा समय से भारत में आ गए,और चीनी हाथ मलते रह गए,फिर इनकी बदनियति की भावना भारत के खिलाफ जगी और ये मैकमोहन लाइन का मुद्दा बनाने की कोशिश करने लगे मतलब ये मैकमोहन लाइन को मानने से साफ इंकार करते रहे फिर एक तरफ भारत से लगातार बातचीत भी जारी रखें और दूसरी तरफ सीमा पर अपनी भारी तैनाती और भावी युध्द की तैयारी में जुट गये,हालांकि भारत इनकी भावी नियत को भांप लिया था लेकिन इतना अंदेशा नही था कि ये धोखे से युध्द करेंगें, हालांकि 20 अक्टूबर 1962 के दिन चीन ने भारत पर हमला बोल दिया जो कि इनके धोखेबाजी का पहला अध्याय था,उस समय पूर्वी लद्दाख बार्डर पर भारत के मात्र 12 हजार सैनिक 3 नाट 3 रायफल व सामान्य तैयारी के साथ तैनात थे और सामने दुश्मन 80 हजार नफरी के साथ अत्याधुनिक असलहों के साथ हमला बोला था।
इस युध्द में एक बात विशेष रूप से गौर करने लायक रही कि दुश्मन ने इस समय इसलिए भी हमला किया था चूंकि भारत का दोस्त रूस उस समय अमेरिका से क्यूबा मिसाइल संकट में उलझा हुआ था ऐसे में रुस के तरफ से भारत को मदद मिलने की संभावना न के बराबर थी और इसके अलावा भी दुश्मन ने रूस से बैलेंस बनाया हुआ था ताकि किसी भी परिस्थिति में रूसी मदद भारत को न मिल सके और रही बात अमेरिका की तो दुश्मन इस बात पर अमेरिका के तरफ से बिल्कुल निश्चिंत था वो भी इसलिए कि अमेरिका तो पाकिस्तान का मददगार है तो ऐसे में सवाल हीं नहीं पैदा होता कि अमेरिका भारत को कोई मदद पहुंचायें ? बस इसी योजना के तहत चीन ने भारत पर हमला कर दिया लेकिन दुश्मन की सोच गलत साबित हुई और अमेरिका ने चीन को चेतावनी देते कहां कि हम भारत की मदद के लिए युध्द में भाग लेने के लिए आ रहे हैं,बस फिर क्या था तुरंत औकात में आ गए फिर एक महिने की इस लड़ाई को यानि 21 नवंबर को बिना किसी शर्त के एकतरफा सीजफायर का ऐलान करते हुए पीछे हट गए,हालांकि चीन डरा जरूर लेकिन भारत के 38 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन पर अपना कब्जा बरकरार रखा,यदि उस समय भारत थोड़ा सा भी चीन के साथ सख्ती बरतता तो बिना किसी शर्त के चीन भारत की जमीन वापस कर देता,लेकिन यहां भी एक से बढ़कर एक महान विचारधारा के लोग हैं, कुछ बोले ही नहीं। लेकिन इस लड़ाई में चीनी सेना भारतीय सेना के अद्भुत पराक्रम से भयभीत हो चुकी थी क्योंकि एक तरफ 80 हजार की नफरी वो भी अत्याधुनिक हथियारों के साथ और दूसरी तरफ मात्र 12 हजार सैनिक वो भी दुश्मन के मुकाबले हर मामले में बेहद कमजोर लेकिन फिर भी भारतीय सैनिक अद्भुत आत्मविश्वास से भरे पड़े थे यही वजह रही कि युध्द के दौरान दुश्मन के मुकाबले नुकसान के अनुपात में बहुत अंतर नहीं था,रिपोर्ट में दोनों देशों का नुकसान का जिक्र कुछ इस तरह से है भारत के शहीदो की संख्या 1383 थी जबकि मारे गए चीनी सैनिकों की संख्या 722 थी वही घायलों में भारत के सैनिकों की संख्या 1047 रही और वही दुश्मन की तरफ कुछ ज्यादा यानि 1697 सैनिक घायल हुए थे। इस लड़ाई में एक और बात सामने आई थी कि जब फ्रंट पर दुश्मन की नफरी और तैयारी की रिपोर्ट को कमान भेजा गया तो कमान अपने लोगों को अगली मदद मिलने तक पीछे हटने का आदेश दिया लेकिन फ्रंट पर डटे भारत के शेरों ने पीछे हटने के आदेश को मानने से साफ इंकार कर दिया और अंतिम सांस और अंतिम गोली तक डटे रहने की प्रतिज्ञा किया,कहते है कि 3नाट3 रायफल को चलाते-चलाते भारतीय सैनिकों के हाथों व उंगलियों में फफोले पड़ गए थे जबकि लोकेशन पर सर्दी बहुत ही ज्यादा थी,लेकिन देश के बहादुर तमाम मुश्किलों का सामना करते रहे लेकिन पीछे नहीं हटें।
फिर वर्ष 1967 में दुश्मन भारतीय सैनिकों से नाथुला दर्रा के फ्रंट पर उलझा और यहां तो देश के बहादुरों ने एक ही झटके में 400 चीनियों को ढेर कर दिया वहीं भारत के मात्र 80 सैनिकों का नुकसान हुआ,
कहते हैं कि इस लड़ाई में तो दुश्मन पूरी तरह से कांप सा गया था, बताया जाता है कि कई दिनों तक चीनियों की लाशें पड़ी रही लेकिन डर वश चीनी सैनिक लोकेशन पर नहीं आ रहे थे फिर हाईलेवल पर दोनों पक्षों में बातचीत होने के बाद ही चीनी अपने सैनिकों की लाशों को रिकवर किये।
आदत से लाचार चीन वर्ष 1969 में चले गए रूस से उलझने दरअसल जब चीनी गणराज्य की स्थापना हुई तो उसी समय चीन ने एक योजना बना रखी थी कि चीन के पड़ोसी मुल्कों द्वारा पूर्व में हथियाये गए चीनी भूभाग को वापस लेना है और इसी मिशन को अंजाम देने की कोशिश करते रहे हैं और इसी कड़ी में इनको लगा कि रूस भी चीन की जमीन हथियाया हुआ है और चले गए मछली मारने, कोई रोका टोका नही तो इनको लगा कि मैदान साफ है फिर अपने सैनिकों की पेट्रोलिंग पार्टी भेजने लगे एक दो बार रूस ने इनको समझाने और चेतावनी देने की कोशिश किया लेकिन लातों के भूत बातों से कहा मानते है,अपनी हरकत लगातार जारी रखें फिर क्या था रूस का गुस्सा सातवें आसमान पर एक बात यहां साफ कर देते हैं कि 1962 के जंग में रूस ने यह कहते हुए भारत की मदद करने से साफ इंकार कर दिया था कि एक तरफ भाई यानि चीन और दूसरी तरफ दोस्त मतलब भारत से था इस वजह से रूस आया नहीं और रूस के इस भाई ने यानि चीन ने रूस के इस एहसान की कीमत 7वें वर्ष में ही रूस के पीठ में छूरा घोंपते हुए चुका दिया यानि 2 मार्च 1969 को चीन ने रूस के खिलाफ 300 चीनी सैनिकों को रूस के खिलाफ भेज दिया इस लड़ाई में दो बातें बहुत गौर करने लायक है तिब्बत और भारत पर हमला करने के दौरान चीनी राष्ट्रपति माओतसे तुंग ही थे और रुस पर हमले के दौरान यही थे, बताया जाता है कि चीन के इस हरकत पर रूस इतना ख़फा हो गया कि रुसी सेना ने परमाणु मिसाइल तैनात कर दिया चीनी बार्डर पर और एक गुप्त संदेश अमेरिका को भेजा कि रुस चीन पर परमाणु हमला करने जा रहा है और अमेरिका इस लड़ाई में बीच में नहीं आयेगा लेकिन वहां चाल हो गई और इस गुप्त संदेश को मीडिया में लीक कर दिया गया,और खबर प्रकाशित हुई कि रूस चीन पर परमाणु हमला करने जा रहा है बस फिर क्या था जो माओतसे तुंग तिब्बत पर कब्जा किये थे और भारत पर भी हमला किये थे अपनी पूरी कैबिनेट को लेकर बंकर में छिप गए और अमेरिका से मिन्नतें करने लगे कि बचाइये तब अमेरिका बीच में आकर किसी तरह मामले को निपटाया, फिर ये आदतन घुस गये वियतनाम में इनको लगा कि वियतनाम एक मच्छर जितना बड़ा है, चीनी सेना मसलकर रख देगी,17 फरवरी 1979 को चीनी फौज वियतनाम पर हमला बोल दी, फिर क्या था वियतनाम की सेना ने महाराणा प्रताप का नाम लेकर चीनी फौज पर कहर ढा दी,जब चीन के 20 हजार सैनिक ढेर हो गए, तो चीनी सेना घबरा गई और अपने कमान पर दबाव बनाने लगी कि जल्द से जल्द सीजफायर करें फिर एक महिनें की इस लड़ाई को बंद कर दिया गया यानि 16 मार्च 1979 को चीन ने सीजफायर के ऐलान के साथ युध्द विराम कर दिया।
सारांश यह है कि वर्ष 1949 से ही चीन अपने पड़ोसी मुल्कों से इस बात को लेकर भिड़ता रहता है कि किसी समय में उसके पड़ोसी देश ने उसकी जमीन पर अवैध कब्जा जमाये हुए है और इस कड़ी में पहले वह विवादित जमीन पर मछली मारने और खेती करने के बहाने अपने लोगों को भेजता रहता है जब सामने से विरोध नहीं होता तब वह अपने सैनिकों की छोटी छोटी टुकड़ियों को गश्त पर भेजता है और निश्चित रूप से इस गश्ती टीम का विरोध होता है जो कि चीनीयो को पहले से ही आभास रहता है फिर शुरू होता है विवाद, फिर दावा किया जाता है कि इस जमीन पर चीनी नागरिक इतने दिनों से खेती करते रहे हैं और मछली पकड़ते रहे हैं तब विरोध क्यों नहीं किया गया ? इन्ही सब बातों को आधार बनाकर विवाद आगे तक जारी रखा जाता है जो कि योजना की एक कड़ी होती है एक बात और भी है जब भी चीन बातचीत करता है तो उसी समय प्लान बी के तहत विवादित लोकेशन के अगल बगल अपनी तैनाती बढ़ा रहा होता है। लेकिन इनके इतिहास पर गौर करने से एक बात तो साफ ही हो जाती है कि ये युध्द के मैदान में लंबे समय तक नहीं टिकते,उदाहरण के लिए भारत और वियतनाम युद्ध,ये संभावना पर अपनी योजनाओं को अमल में लाते है खुफिया रिपोर्ट पर नहीं,दरअसल इनकी इंटेलीजेंस बहुत कमजोर है जैसे भारत से लड़ाई में इनको अमेरिकी मदद का बिल्कुल भी इलम नहीं था वियतनाम में भी बिना किसी नफा नुकसान के कूद गए और बुरी तरह से पिटे। अपने फायदे के चक्कर में ये किसी भी हद तक जाते हैं उदाहरण के लिए भारत का जिगरी दोस्त रूस इनके चक्कर में भारत की मदद मदद नहीं किया और ये 7 साल बाद ही रूस के खिलाफ चीनी सैनिकों को भेज दिये तब अमेरिका इनकी मदद किया आज अमेरिका को भी आंख दिखाते है। वियतनाम,फिलीपिंस,ताइवान,भारत,नेपाल,भूटान इन सभी पड़ोसियों के उपर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने की हमेशा कोशिश रहती है।
