एक्सक्लूसिव रिपोर्ट

भारत और तुर्की कब दोस्त और कब दुश्मन बने ? – चंद्रकांत मिश्र (एडिटर इन चीफ) / अमरनाथ यादव

भारत और तुर्की के रिश्तों के इतिहास की 10 अहम करवटों को समझें-
1. भारत ने की थी दोस्ती की शुरूआत
भारत और तुर्की के बीच रिश्तों के इतिहास की चर्चा 1912 से किया जाना ठीक मालूम होता है, जब स्वतंत्रता सेनानी डॉ अंसारी ने बालकन युद्ध के समय तुर्की को मेडिकल मदद भेजी थी. इसके बाद 1920 में तुर्की की आज़ादी की लड़ाई में भी भारत ने मदद की थी. पहले विश्वयुद्ध के बाद महात्मा गांधी ने तुर्की के साथ हुए अन्याय का विरोध किया था.

2. दोनों ने दी एक दूसरे को तरजीह
भारत के आज़ाद होने के बाद पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू इसलिए प्रभावित थे क्योंकि मुस्तफा कमाल पाशा ने तुर्की को एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतंत्र के रूप में बदला था. नेहरू भी भारत के लिए ऐसा ही आदर्श सोचते थे. वहीं, भारत के आज़ाद होते ही उसे तवज्जो देते हुए कूटनीतिक संबंध शुरू​ किए.

3. गुटबाज़ी से अलग हुए रास्ते
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद का ही समय था, जब भारत आज़ाद हो रहा था और दुनिया एक सियासी खेमेबाज़ी में मुब्तिला हो रही थी. अमेरिका और सो​वियत संघ दुनिया की ताकत के दो ध्रुव बन गए थे और ऐसे में तुर्की अमेरिका के ‘नाटो’ खेमे में शामिल हुआ. पाकिस्तान भी. लेकिन नेहरू के नेतृत्व में भारत तटस्थ रहा था.

4. शीतयुद्ध से और बढ़ा फासला
अमेरिका और सोवियत संघ के बीच 1947 से ही शीत युद्ध की शुरूआत हो चुकी थी. इस दौरान तुर्की तो अमेरिकी खेमे में था ही, भारत तटस्थ रहते हुए भी धीरे धीरे सोवियत संघ वाले गुट की तरफ झुक रहा था. अपनी अपनी विदेश नीतियों से दोनों देश दूर होते चले गए.

5. भारत पाक युद्ध में तुर्की रहा दुश्मन
शीत युद्ध और खेमेबाज़ी का एक असर ये भी हुआ कि तुर्की और पाकिस्तान के बीच दोस्ताना रिश्ते बने. 1965 और 1971 में भारत और पाकिस्तान के बीच दो बार ऐतिहासिक लड़ाई हुई और दोनों ही बार तुर्की ने पाकिस्तान की भरपूर मदद की. सैन्य मदद भी.

6. फिर भारत ने दिया साइप्रस का साथ
पाकिस्तान के पक्ष में तुर्की के खुले सहयोग के बाद जब 1974 में तुर्की ने साइप्रस पर हमला किया तो भारत ने साइप्रस का साथ दिया. इसके पीछे बदले की भावना से ज़्यादा भारत की विचारधारा थी. नेहरू की विदेश नीति पर ही चल रहा भारत गुटनिरपेक्ष आंदोलन से जुड़ा था और साइप्रस के राष्ट्रपति इस आंदोलन के बड़े नेता थे. साइप्रस के एक हिस्से पर तुर्की के कब्ज़े के खिलाफ भी भारत की इंदिरा गांधी सरकार ने कार्रवाई की थी.

7. फिर करीबी का हुआ प्रयास
1980 का दशक दोनों देशों के लिए अहम रहा. मुस्लिम देशों ने ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ इस्लामिक कॉर्पोरेशन संगठन बनाया था, जिसमें अरब और यूएई काफी सक्रिय हो रहे थे, तो दूसरी तरफ भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर का मुद्दा नाज़ुक हो चला था. 1984 में राजीव गांधी जब प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने तुर्की के साथ संबंध बेहतर करने की कई कोशिशें कीं. बाद में नरसिम्हा राव और अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने भी तुर्की का दौरा कर संबंध बेहतर करने की कोशिश की.

8. फिर तुर्की में बदली सरकार
2001 में लगने लगा था कि दोनों देश दोस्ती की राह पर हैं, लेकिन फिर तुर्की में 2002 में इस्लामवाद के नाम पर अर्दोआन की पार्टी की सरकार सत्ता में आई. एके पार्टी के नेता अर्दोआन ने न केवल तुर्की की पहचान बदलने की कोशिश की बल्कि मुस्लिम देशों में एक शक्ति बनने की भी. एक तरफ कश्मीर मुद्दे को अर्दोआन ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उठाना शुरू किया, तो दूसरी तरफ, आपसी व्यापार में भारत के भारी पलड़े को भी मुद्दा बनाया.

9. तेल का एंगल भी आया आड़े
चूंकि तुर्की उन देशों में है, जिन्हें तेल और गैस के लिए आयात पर निर्भर रहना होता है इसलिए तुर्की ने परमाणु शक्ति भारत से अपने हित में थोरियम से बिजली बनाने की तकनीक चाही थी, मगर भारत इस पर राज़ी नहीं हुआ. 2017 और 2018 में अर्दोआन दो बार भारत आए लेकिन नाराज़ होकर गए. इसके बाद से भारत ने सऊदी अरब, इज़रायल, यूएई और अमेरिका के साथ बेहतर संबंधों को तवज्जो देना शुरू कर दिया और तुर्की के साथ संबंध फोकस से हट गए.

10. तुर्की और पाकिस्तान की नजदीकी
इसी बीच यह भी हुआ कि इस्लामी आंदोलन के रूप में चर्चित गुलान मूवमेंट या फेतुल्ला मुहिम को तुर्की ने आतंकी घोषित किया और भारत से उम्मीद की कि इस मुहिम की भारत में सक्रियता भी खत्म हो, लेकिन भारत ने इससे इनकार कर दिया. तबसे अर्दोआन कश्मीर मुद्दा शिद्दत से उठाकर पाकिस्तान के सुर में बोलते हैं.
दूसरी तरफ, भारत से न बनते देख अब तुर्की नेता अर्दोआन ने मुस्लिम देशों का खलीफा बनने की महत्वाकांक्षा पर फोकस करना शुरू कर दिया. विशेषज्ञ मानते हैं कि कतर के बहाने से सऊदी अरब पर दबाव बनाने, फिलस्तीनियों की मदद के लिए मदद भेजने, हगिया सोफिया को मस्जिद बनाने और मुसलमानों के मानवाधिकारों के मुद्दों पर चीखने जैसे कदम तुर्की की झुंझलाहट साबित करते ​हैं.

क्या निकला रिश्ते के इतिहास का सार?
पहली बात यह रही कि दोनों देश आपसी रिश्ते बेहतर करने के लिए कोशिश करते रहे हैं लेकिन निजी हितों और वैश्विक राजनीतिक स्थितियों के चलते दोनों नजदीकी और मधुर रिश्ता बना नहीं सके. दूसरे ये कि दोनों ही देश अब महत्वाकांक्षी हैं और श्रेष्ठ होने की होड़ में शामिल हैं.

भारत तुर्की संबंधों पर, पूर्व राजदूत एमके भद्रकुमार और जेएनयू प्रोफेसर एके पाशा जैसे विशेषज्ञों की मानें तो भारत 1985 से पहले के घाव खुरच-खुरच कर तुर्की को उकसाता है तो तुर्की, कश्मीर मामले पर 50 साल
गौरतलब है कि अंकारा में भारत का दूतावास है और इस्तांंबुल में कॉंसुलेट जनरल तो दिल्ली में तुर्की का दूतावास है और मुंबई में कॉंसुलेट जनरल. रही बात व्यापार की तो तुर्की ने भारत को 2018 में कुल 1.2 अरब डॉलर का निर्यात किया तो 7.5 अरब डॉलर का आयात. तुर्की में भारत के राजनयिक ने इसी साल जनवरी में कहा था कि 2020 में दोनों देशों के बीच 10 अरब डॉलर का कारोबार होगा और 2025 तक और ज़्यादा लक्ष्य है.

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